हरियाणा की राजनीति में लंबे समय तक वर्चस्व रखने वाली क्षेत्रीय पार्टियों इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) और जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। एक समय था जब ये पार्टियां हरियाणा की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाती थीं, लेकिन बदलते राजनीतिक हालात और मतदाताओं के बदलते रुझान ने इन्हें हाशिए पर ला खड़ा किया है। साल 2024 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों दलों की हार और निराशाजनक प्रदर्शन ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या ये पार्टियां अपने अस्तित्व को बचा पाएंगी, या फिर हरियाणा की राजनीति से पूरी तरह गायब हो जाएंगी?
जेजेपी और इनेलो की गिरती साख: क्यों और कैसे?
जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) हरियाणा की राजनीति में लंबे समय से जाट समुदाय का समर्थन हासिल करते आ रहे हैं। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में यह समर्थन लगभग खत्म हो गया। जेजेपी का वोट प्रतिशत महज 0.87% तक सिमट गया, जबकि इनेलो को केवल 1.74% मत ही मिल पाए। यह गिरावट केवल चुनावी आंकड़ों में नहीं बल्कि इनके राजनीतिक आधार और संगठन में भी देखने को मिली।
इनेलो, जिसे 1996 में चौधरी देवीलाल ने स्थापित किया था, एक समय हरियाणा की सबसे मजबूत क्षेत्रीय पार्टी थी। 2018 तक इनेलो का राजनीतिक कद इतना बड़ा था कि वह राष्ट्रीय दलों को चुनौती देती थी। लेकिन परिवार में फूट के बाद पार्टी टूट गई और इसका सीधा असर उसके वोट बैंक और राजनीतिक ताकत पर पड़ा। अजय चौटाला और उनके बेटे दुष्यंत चौटाला ने इनेलो से अलग होकर जेजेपी की स्थापना की। जेजेपी ने 2019 के विधानसभा चुनावों में 14.80% वोट शेयर के साथ 10 सीटें जीतीं और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई। लेकिन यह बढ़त ज्यादा समय तक नहीं टिक पाई, और पांच साल में ही जेजेपी का कुनबा बिखरने लगा।
इनेलो का पतन: क्या है वजह?
इनेलो के पतन की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। 2019 के विधानसभा चुनाव में इनेलो का वोट शेयर सिर्फ 2.44% रह गया और पार्टी केवल एक सीट पर जीत हासिल कर पाई। इसका मुख्य कारण चौटाला परिवार में आई फूट और पार्टी के नेतृत्व में आई कमजोरी थी। ओम प्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला के बीच मतभेदों ने पार्टी को भीतर से कमजोर कर दिया। जहां एक ओर अजय चौटाला ने जेजेपी बनाई, वहीं इनेलो में नई ऊर्जा का संचार नहीं हो पाया। इसके परिणामस्वरूप, इनेलो का राजनीतिक कद लगातार घटता गया और पार्टी धीरे-धीरे हरियाणा की राजनीति से गायब होने लगी।
जेजेपी की चुनौती: कैसे बचाएगी अपना वजूद?
दुष्यंत चौटाला की जेजेपी ने 2019 में उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन किया और हरियाणा की राजनीति में एक मजबूत क्षेत्रीय पार्टी के रूप में उभरी। लेकिन समय के साथ पार्टी की पकड़ कमजोर पड़ने लगी। जेजेपी के 10 विधायकों में से चार भाजपा में शामिल हो गए, और तीन कांग्रेस का दामन थाम चुके हैं। अब पार्टी के पास केवल तीन विधायक बचे हैं, जिनमें खुद दुष्यंत चौटाला और उनकी मां नैना चौटाला शामिल हैं।
लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों ने जेजेपी की कमजोरी को और उजागर कर दिया। जेजेपी का वोट शेयर महज 0.87% तक गिर गया, जो उसके अस्तित्व पर सवाल खड़े करता है। दुष्यंत चौटाला के पास अब सीमित विकल्प बचे हैं, जिनमें से एक है नई गठबंधनों की खोज। इसी कड़ी में जेजेपी ने चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया है, जिससे कुछ राजनीतिक लाभ की उम्मीद की जा रही है। लेकिन क्या यह गठबंधन जेजेपी को उसकी खोई हुई जमीन वापस दिला पाएगा, यह सवाल बना हुआ है।
इनेलो और जेजेपी: गठबंधन से होगा फायदा?
वर्तमान राजनीतिक हालात में, इनेलो ने बसपा के साथ गठबंधन किया है और जेजेपी ने आजाद समाज पार्टी के साथ हाथ मिलाया है। बसपा का हरियाणा में जनाधार लगातार गिरता गया है, 2019 के चुनाव में बसपा का वोट शेयर मात्र 0.16% रह गया था। वहीं, आजाद समाज पार्टी पहली बार हरियाणा में चुनाव लड़ रही है, जिससे जेजेपी को कुछ फायदा होने की उम्मीद की जा रही है। जेजेपी ने ASP को 20 सीटें दी हैं, लेकिन यह गठबंधन कितना कारगर साबित होगा, यह कहना मुश्किल है।
राष्ट्रीय पार्टियों की बढ़ती पकड़: क्या खत्म हो जाएगा क्षेत्रीय दलों का वजूद?
हरियाणा में राष्ट्रीय पार्टियों की बढ़ती पकड़ ने क्षेत्रीय दलों को हाशिए पर धकेल दिया है। 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर देखने को मिली थी, जिसमें कांग्रेस का वोट शेयर 36.49% और भाजपा का 28.08% था। 2024 के लोकसभा चुनावों में भी यही ट्रेंड देखने को मिला, जब जाट समुदाय ने कांग्रेस का समर्थन किया और इनेलो-जेजेपी का समर्थन छोड़ दिया।
चुनाव विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला देखने को मिलेगा। कुछ सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला हो सकता है, लेकिन इनेलो और जेजेपी की भूमिका सीमित ही रहने की संभावना है।
इनेलो और जेजेपी: किंगमेकर बनने की कोशिश
हालांकि, इनेलो और जेजेपी की कमजोर स्थिति के बावजूद, ये पार्टियां खुद को किंगमेकर के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही हैं। इनेलो के महासचिव अभय चौटाला ने दावा किया है कि उनकी पार्टी 15 से अधिक सीटें जीत सकती है, जबकि दुष्यंत चौटाला का दावा है कि उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस दोनों को मात देगी।
लेकिन चुनाव विशेषज्ञों का मानना है कि इन दावों का हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है। प्रोफेसर गुरमीत सिंह का कहना है कि “इनेलो और जेजेपी की गिरती लोकप्रियता यह दिखाती है कि ये पार्टियां केवल अपने वजूद को बचाने के लिए चुनाव लड़ रही हैं। उनका किंगमेकर बनने का सपना हकीकत से दूर है।”
हरियाणा में क्षेत्रीय पार्टियों का इतिहास: क्यों नहीं टिक पाईं ये पार्टियां?
हरियाणा की राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियों का इतिहास भी उतना ही दिलचस्प है। राव वीरेंद्र सिंह 1967 में विशाल हरियाणा पार्टी के बैनर तले क्षेत्रीय पार्टी से बनने वाले पहले मुख्यमंत्री थे, लेकिन उनकी सरकार केवल 241 दिन चली। इसके बाद बंसीलाल ने 1999 में हरियाणा विकास पार्टी बनाई और मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनका कार्यकाल केवल 3 साल 74 दिन ही चल पाया।
इंडियन नेशनल लोक दल ने 1999 और 2000 में दो बार सरकार बनाई। ओम प्रकाश चौटाला का पहला कार्यकाल 224 दिन का रहा, लेकिन उन्होंने 2000 से 2005 तक अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। हालांकि, इसके बाद पार्टी का पतन शुरू हो गया और अब 2024 के विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियों का वजूद संकट में है।
क्या है भविष्य?
वर्तमान परिस्थितियों में, यह कहना मुश्किल है कि इनेलो और जेजेपी अपना वजूद बचा पाएंगी या नहीं। 2024 के विधानसभा चुनाव इन दोनों पार्टियों के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। अगर ये पार्टियां इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाईं, तो हरियाणा की राजनीति से इनका नाम और निशान मिट सकता है।
अंत में, हरियाणा की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का भविष्य अधर में है। इनेलो और जेजेपी को न केवल राष्ट्रीय दलों से बल्कि अपने भीतर की फूट और कमजोर नेतृत्व से भी जूझना होगा। आगामी विधानसभा चुनाव ही तय करेंगे कि ये पार्टियां हरियाणा की राजनीति में अपना स्थान बनाए रख पाएंगी या फिर इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएंगी।