वीरता, बलिदान और स्वाभिमान की जंग: कारगिल की कहानी

वीरता, बलिदान और स्वाभिमान की जंग: कारगिल की कहानी
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परिचय

मैं कारगिल हूं। मेरे पास 6 हजार फीट से 18 हजार फीट ऊंची चोटियां हैं। इन चोटियों पर 1999 में पाकिस्तानियों ने कब्जा किया। लेकिन भारतीय सेना के वीरों ने सर्वोच्च बलिदान देकर मुझे उन कायरों और धोखा देकर कब्जा करने वालों से मुक्त कराया। आज इस विजय दिवस पर आप पढ़िए चोटियों पर लड़ी गईं जंगों की कहानी…

कारगिल: सिर्फ एक स्थान नहीं, भावना है

मैं कारगिल हूं। सिर्फ एक शब्द नहीं, स्थान नहीं। पूरे देश की भावना जुड़ी है मुझसे। मैंने वीरता देखी है, सर्वोच्च बलिदान भी। मेरे दो तरफ इस धरती के दुश्मन बैठे हैं। एक पाकिस्तान, दूसरा चीन। गिद्ध की तरह नजर गड़ाए हुए। कैसे मौका मिले और ये मुझपर अपने झंडे गाड़ दें। कोशिश की भी, 1999 में। लेकिन दुश्मनों की चिता जलाई हमारी सेना के चीतों ने। आज मैं 1999 के जंग की कहानी अपनी उन चोटियों की जुबानी सुनाऊंगा।

दुश्मनों की कायराना हरकत

मेरे कंधे और सिर पर बैठकर घुसपैठियों ने जंग शुरू तो मई में की थी। पर मैं देख रहा था कि कैसे फरवरी से ही तैयारी शुरू कर दी थी उन कायरों ने। फरवरी में उनकी फौज की चार से सात बटालियन भारतीय सीमा पार करके मेरी तरफ आई थी। इसमें पाकिस्तानी स्पेशल सर्विसेस ग्रुप, नॉर्दन लाइट इंफैंट्री के लड़ाके थे। मेरी चोटियों पर करीब 132 ऊंचे प्वाइंट्स पर बेस बनाया। सर्दियों में, जब बर्फ जमी रहती है।

इन पाकिस्तानी घुसपैठियों को कश्मीरी गुरिल्ला और अफगान के कातिलों का भी साथ मिला था। लेकिन ज्यादातर घुसपैठ अप्रैल में हुई। जब थोड़ी बर्फ पिघली। घुसपैठिये निचली मुस्कोह घाटी और द्रास के मार्पो ला रिजलाइन के दूसरी तरफ से आए। कुछ कारगिल के पास मौजूद ककसर से आए। फिर बटालिक सेक्टर के पूर्व सिंधु नदी के दूसरी तरफ से। उत्तर की तरफ सीमा के उस पार चोरबट ला सेक्टर से आए। इसके अलावा सियाचिन इलाके के दक्षिण में तुरतुक सेक्टर से आए। इन सबकी आमद-रफ्त मैं देख रहा था।

पाकिस्तान का ऑपरेशन बद्र

मेरी ऊंचाई कम नहीं है। 6 हजार से 18 हजार फीट तक है। कठिन है। जानलेवा भी। सांसें थम जाती हैं यहां। खून नसों में ही जम जाता है। सर्दियों में यहां पाकिस्तान और भारत की सेना नहीं रहती। दोनों देशों ने यह समझौता किया था। लेकिन पाकिस्तानी आए। उस समय उनकी सेना का प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ था। उसी ने मेरी चोटियों पर कब्जा करने के लिए ऑपरेशन बद्र चलाया था। मकसद था श्रीनगर-लेह हाइवे को काट देना। ताकि दोनों देशों के बीच की सीमा की दिशा बदल जाए।

वैसे तो मेरे पूरे फैलाव में कुल 23 चोटियां हैं। सबसे ऊंची चोटी है प्वाइंट 5608, 18399 फीट ऊंची। सबसे छोटी है बारडम, करीब 14964 फीट ऊंची। घुसपैठियों का इरादा सभी चोटियों पर कब्जा करना था। लेकिन मेरी जिन चोटियों ने जंग देखी है, अब पढ़िए उनकी कहानी…

तोलोलिंग की जंग

मेरी यह चोटी द्रास सेक्टर में मौजूद है। श्रीनगर-लेह हाइवे के ठीक सामने। तोलोलिंग पीक्स पर दो प्वाइंटस हैं, प्वाइंट 5140 और प्वाइंट 4875। ये चोटियां तोलोलिंग चोटी के पश्चिम में हैं। यहीं पर हमारे भारतीय जवानों ने सबसे ज्यादा सर्वोच्च बलिदान दिया। ये चोटियां आसान नहीं हैं। 16 हजार फीट ऊंची हैं। सांप जैसे रास्ते हैं यहां। लेकिन घुसपैठियों ने ऊपर के हिस्सों पर कब्जा कर लिया था। यहां पारा माइनस 5 से माइनस 11 तक रहता है। खुद ऊपर चढ़ना मुश्किल होता है। अगर साथ में हथियार हों तो और मुश्किल।

ऊपर बैठे घुसपैठिये इसी का फायदा उठा रहे थे। भारतीय वीर एक-एक इंच आगे बढ़ रहे थे, लेटकर। भारतीय सेना ने अपने 13 जेएके राइफल्स, 18 गढ़वाल राइफल्स और 1 नगा को तीन तरफ से हमला करने को कहा। साथ ही आर्टिलरी फायरिंग होती रही। भारत की तरफ से गोले बरस रहे थे। यही वो समय था जब कैप्टन विक्रम बत्रा ने हाथों से लड़ाई करके चार घुसपैठियों को मार गिराया। इसके बाद कैप्टन एस.एस जमवाल ने आखिरी हमला बोला। सात संगड़ उड़ाए। पाकिस्तानियों को वापस भगाया।

मैंने देखा कि अगले कुछ दिनों में भारतीय सेना के वीर जवानों ने रॉकी और ब्लैक टूथ पर वापस कब्जा जमाया। पाकिस्तानियों को ढेर किया और भगाया। यहां पर सिपाही के. अशुली शहीद हुए। वह ब्लैक टूथ पर तिरंगा लहराने के लिए एक क्लिफ पर रस्सी बांध रहे थे। तभी दुश्मन की गोली से बलिदानी हो गए। इसके साथ ही प्वाइंट 5140 और बंप 9 और 10 पर भारत ने फतह हासिल की।

प्वाइंट 4700 और थ्री पिंपल्स की जंग

टाइगर हिल की तरफ बढ़ने से पहले भारतीय वीरों ने टारगेट किया प्वाइंट 4700 को। तोलोलिंग और प्वाइंट 5140 से भगाए जाने के बाद पाकिस्तानी प्वाइंट 4700 और थ्री पिंपल्स पर कब्जा जमाए बैठे थे। कुछ भागे हुए घुसपैठिये यहां आकर जम गए थे। तब 18 गढ़वाल राइफल्स ने ऑपरेशन शुरू किया। ऊंचाई पर बैठे दुश्मन की तरफ से भारी गोलीबारी के बावजूद फतह हासिल की। इसके साथ ही रॉकी और संगड नाम के दो फीचर्स पर भी वापस कब्जा किया। अगली बारी थी थ्री पिंपल्स की।

थ्री पिंपल्स एक जटिल भौगोलिक संरचना है। यहां पर नोल, लोन हिल और थ्री पिंपल्स चोटियां हैं। यहां से दुश्मन भारतीय सेना के हर मूवमेंट पर नजर रख रहे थे। बोफोर्स की फायरिंग पर नजर रख रहे थे। तब 2 राजपुताना राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल एमबी रविंद्रनाथ ने मिशन लॉन्च किया। लेकिन कठिन चढ़ाई की वजह से यह धीमा पड़ गया। पाकिस्तानी ऑटोमैटिक हथियारों का इस्तेमाल कर रहे थे। लेकिन भारतीय सेना ने पहले नोल, फिर लोन हिल और अंत में थ्री पिंपल्स पर कब्जा किया।

लोन हिल पर तो पाकिस्तानी MMG यानी मीडियम मशीन गन से फायरिंग कर रहे थे। लेकिन घातक प्लाटून के बहादुर कैप्टन एन. केंगुरुसे ने नंगे पांव इस पीक पर हमला बोला। चार घुसपैठियों को अकेले मार गिराया। लेकिन इस हमले में बुरी तरह जख्मी हुए। मेरी ही जमीन पर दम तोड़ दिया।

टाइगर हिल की जंग

सबसे ज्यादा चर्चा इसी की होती आई है। टाइगर हिल श्रीनगर-लेह हाइवे से मात्र 10 किलोमीटर दूर है। इस पर वापस तिरंगा फहराना बेहद जरूरी था। तब 192 माउंटेन ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर एमपीएस बाजवा को इस पर कब्जा करने का मिशन सौंपा गया। उन्होंने यह काम 18 ग्रैनेडियर्स और 8 सिख के जवानों को सौंपा। इनकी मदद के लिए भारतीय सेना की क्रैक टीम थी। ये टीम हाई एल्टीट्यूड वॉरफेयर स्कूल से आई थी। इसके अलावा आर्टिलरी और कॉम्बैट सपोर्ट दिया जा रहा था। क्योंकि यह चोटी 16500 फीट ऊंची थी।

टाइगर हिल पर कई दिशाओं से भारतीय सेना ने हमला बोला। साथ में बोफोर्स तोप के गोलों और मल्टीबैरल रॉकेट लॉन्चर की मदद मिल रही थी। इससे पहले भारतीय वायुसेना के फाइटर जेट्स ने टाइगर हिल पर भयानक बमबारी और मिसाइलें दागीं। उस समय यह चोटी पाकिस्तान के 12 नॉर्दन लाइट इंफैंट्री के कब्जे में थी। 3 जुलाई की रात 18 ग्रैनेडियर्स ने चढ़ाई शुरू की। भयानक खतरनाक मौसम था। जानलेवा चढ़ाई के साथ। लेकिन पाकिस्तानी भी कम चालाक नहीं थे। वो इस टुकड़ी पर तीन तरफ से फायरिंग कर रहे थे। वो भी ऊंचाई से।

तब कैप्टन सचिन निंबालकर को एक कंपनी के साथ पीक से 100 मीटर नीचे सिक्योर करने को भेजा गया। जबकि यह बेहद खतरनाक था। लेफ्टिनेंट बलवान सिंह की घातक प्लाटून पीक से मात्र 30 मीटर नीचे थी। बोफोर्स की बमबारी का सहारा लेकर दोनों कंपनियों ने चोटी की तरफ चढ़ाई शुरू की। उन्होंने दुश्मन को ऐसा चकमा दिया कि वो आज भी उसके बारे में सोच कर दहल जाते होंगे। उधर, पाकिस्तान ने भी शेलिंग शुरू कर दी थी। इससे दोनों तरफ के सैनिकों की जान जा रही थी। पाकिस्तान को हराने के लिए उनकी सप्लाई लाइन तोड़नी जरूरी थी।

5 जुलाई को 8 सिख बटालियन ने यह काम पूरा किया। तब जाकर 18 ग्रैनेडियर्स ने टाइगर हिल की चोटी को पूरी तरह से साफ करके तिरंगा लहराया। यहीं पर परमवीर चक्र विजेता ग्रैनेडियर योगेंद्र सिंह यादव घातक प्लाटून के साथ जंग में बुरी तरह जख्मी हुए थे। घुसपैठियों के संगड़ में हथगोले फेंके। उन्हें राइफल से मार डाला। चार घुसपैठियों को मारने के बाद ऑटोमैटिक बंदूक से दूसरा संगड़ भी खत्म कर दिया।

प्वाइंट 4875 की जंग

कारगिल की जंग अब अंतिम दौर में थी। टाइगर हिल पर तिरंगा लहराने के बाद अगला टारगेट था प्वाइंट 4875। ये मुस्कोह घाटी में मौजूद चोटी है। वैसे तो यहां पर कई खतरनाक चोटियां हैं। लेकिन प्वाइंट 4875 से नेशनल हाइवे का 30 किलोमीटर लंबा इलाका दिखता था। यानी यहां से किसी भी तरफ हमला किया जा सकता था। 79 माउंटेन ब्रिगेड के ब्रिगेडियर रमेश ककर को यह मिशन सौंपा गया।

दो कंपनियों ने फ्लैट टॉप पर पहुंच कर अलग-अलग दिशाओं से दुश्मन पर हमला किया। मीडियम मशीन गन की मदद से ताबड़तोड़ फायरिंग की। यहां पर कैप्टन विक्रम बत्रा कमांड में थे। इसके बाद कैप्टन बत्रा ने पांच घुसपैठियों को आमने-सामने की लड़ाई और हाथ की लड़ाई में मार गिराया। लेकिन खुद भी शहीद हो गए। जिसके लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

अन्य महत्वपूर्ण जंग

इसके अलावा खालूबार, चोरबाट ला, कुकरथांग, जुबार जैसे प्वाइंट्स पर भी छोटी जंगें हुईं। ये सभी चोटियां बटालिक सेक्टर में हैं। यहां पर मेजर सोनम वांगचुक, लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहीं से मेरे ऊपर हुए कब्जे की कहानी खत्म होती है। लेकिन भारत के वीरों के खून से सनी मेरी चोटियां हमेशा इस बात गर्व करती रहेंगी कि भारतीय सेना है तो देश हिफाजत से है।

समापन

कारगिल की जंग भारतीय सेना के अद्वितीय साहस और बलिदान की गाथा है। यह संघर्ष न केवल एक सैन्य विजय थी, बल्कि राष्ट्र की एकता और अखंडता की प्रतीक भी है। आज हम उन वीरों को नमन करते हैं जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर हमें सुरक्षित रखा। उनकी वीरता और बलिदान की कहानी सदैव प्रेरणा देती रहेगी।

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